तन्हां इस शहर में नहीं कोई शख्स
तन्हाई आये भी तो कैसे आये
उनके पास
सुबह होती है जिनकी, शाम की
रोटी की फ़िक्र के साथ ,
तन्हां इस शहर में नहीं कोई
शख्स ‘अरुण’
फ़िक्र-ओ-गम की बारात है
सबके साथ,
पीठ पर लादे प्लास्टिक का
थैला, नहीं वो अकेला
भोंकते कुत्तों की फ़ौज पीछे
पीछे है उसके साथ,
'सुबह' जब भी होगी, बहुत
खूबसूरत होगी
सोते हैं हर रात इस ख्वाहिश
के साथ,
प्यार-ओ-रोमांस के गीत भी
गायेंगे एक दिन
अभी तो खड़े हैं मजलूमों के
साथ,
अरुण कान्त शुक्ला
21/12/2017
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