Saturday, September 23, 2017

अपना नसीब खुद बनाते हैं

अपना नसीब खुद बनाते हैं

बड़ा ही बेदर्द
सनम उनका निकला
वो जां लुटा बैठे
वो मैय्यत में भी न आया,  

इश्क अंधा होता है
वहां तक तो ठीक था
वो अंधे होकर पीछे पीछे चल पड़े  
ये गजब हो गया,

कुछ दिन पहले तक
उन्हें लगता था
कहीं कोई दहशत नहीं
अब उन्हें लगता है
दहशत घुल गई है
आबो-ऐ–हवा में,

वो रास्ता भटके हैं
घर नहीं भूले
एक दिन लौट आयेंगे अपने घर
हमें यकीं है,

हम पहले भी कमैय्या थे
कमा कर खाते थे
हम आज भी कमैय्या हैं
कमा कर खाते हैं
तेरे नसीब से हमें कोई मतलब नहीं
हम अपना नसीब खुद बनाते हैं,

अरुण कान्त शुक्ला

24/9/2017  

Wednesday, September 20, 2017

इस बरसात में


इस बरसात में

पहली बार बारिश हुई इस बरसात में
पहली बार भीगी सहर देखी इस बरसात में,

पहली बार सड़कें गीली देखीं इस बरसात में
पहली बार कीचड़ सने पाँव धोये आँगन में इस बरसात में,

पहली बार साँसों में सौंधी खुशबू गई इस बरसात में
पहली बार कच्छा-बनियान नहीं सूखीं इस बरसात में,

सूखी तो गुज़री हैं अनेकों बरसातें बरसात में
पहली बार खड़ी फसलें बर्बाद देखीं इस बरसात में,

उमस के मौसम तो देखे अनेकों बरसात में
पहली बार उमस को बरसते देखा इस बरसात में,

सावन की झड़ी और भादों की बारिश तो बिसरी यादें हैं
पहली बार जेठ की तपती दुपहरी देखी इस बरसात में,

काले काले बादलों को उमड़ते-गरजते-चमकते तो देखा हर बरसात में
‘गरजने वाले बरसते नहीं’ पहली बार सच होते देखा इस बरसात में,    

अरुण कान्त शुक्ला
20 सितम्बर, 2017