Tuesday, September 8, 2015

मुझे सबसे है प्रीत..

पांच दोहे..

जग बदले, बदले जग की रीत,
मैं 'अरुण' क्यों बदलूं, मुझे सबसे है प्रीत,

रार रखना है तो सुनो मित्र, रखो खुद से रार,
छवि न बदले कभी किसी की, चाहे दर्पण तोड़ो सौ बार,

समझ बूझकर लो फैसले, समझ बूझकर करो बात,
गोली जैसी घाव करे, मुंह से निकली बात,

काग के सिर मुकुट रखे से, काग न होत होशियार,
उड़ उड़ बैठे मुंडेर पर, कांव कांव करे हर बार,

कहे ‘अरुण’ सीख उसे दीजिये, जो पाकर न बोराय,
करे चाकरी राजा की, सीख उसे कभी न भाय,


8 सितम्बर, 2015    

Sunday, September 6, 2015

मन की बात का बोझ..

मन की बात का बोझ

एक आदमी में छुपे हैं कई शैतान,
आखिर कोई शैतान का सम्मान करे तो क्यों करे?

एक आदमी के ज्ञान की परतों में छिपी हैं कई मूढ़ताएं
आखिर कोई किसी मूढ़ पर भरोसा करे तो क्यों करे?

एक आदमी के अतीत के पन्नों पर पुती है काली स्याही
आखिर कोई किसी के अतीत से आँखें मूंदे तो क्यों मूंदे?

एक आदमी की बातों में बस पकते हैं ख्याली पुलाव
आखिर कोई किसी के ख्याली पुलावों से पेट भरे तो कैसे भरे?

एक आदमी कर रहा है मन मन भर मन की बात  
आखिर कोई उसके मन की बात का बोझ ढोए तो क्यों ढोए?

अरुण कान्त शुक्ला

6/9/2015    

Friday, August 28, 2015

मित्र कवि युद्ध शिल्पी न बनो..



मित्र कवि युद्ध शिल्पी न बनो

कविता में तोप चलाओ,
पर बेरोजगारी के खिलाफ,
तलवारें भांजो पर भुखमरी के खिलाफ,
डंडे बरसाओ पर स्त्री की अस्मत के खातिर ,
भाई कवि मित्र,
पर अपनी कविता में,
युद्ध के लिए देशों को न उकसाओ ,
इसकी कीमत बहुत भारी होती है,
विधवाओं की सूनी मांग ,
समाज के लिए रात कारी होती है,
शब्द शिल्पी हो तुम,
युद्ध शिल्पी न बनो,
कविता को बनाओ,
नये सपनों,
नये समाज को गढ़ने का आधार,
जिसमें हो समानता, बराबरी और भाईचारा,
रहे यही प्रयास तुम्हारा,
बन न पाये कविता कभी,
किसी युद्ध का हथियार,
किसी सिरफिरे की वहशी सोच का औजार,
28/8/2015

Wednesday, August 19, 2015

मूर्खों को हमने सर बिठाकर रखा है,

मूर्खों को हमने सर बिठाकर रखा है

एक दिन किसी ने मुझसे पूछा
तलवार ज्यादा मार करेगी या फूल,
मैंने कहा, तलवार,
तो उसने कहा
फिर कविता में इतना
रस क्यूं,

सीधे कहो न कि मूर्खों को हमने सर बिठाकर रखा है,    

Thursday, July 23, 2015

बेवफा लहरें..



बेवफा लहरें

समुद्र की लहरें कभी खामोश नहीं रहतीं,
समुद्र की लहरें कभी वफ़ा नहीं करतीं,
उनकी फितरत है लौट जाना,
साहिल को भिगोकर,
लहरों पे कभी यकीन न करना
रेत पर पाँव जमा कर रखना,
वरना, बेवफा लहरें बहा ले जायेंगी,
तुम्हें भी, तलुए के नीचे की रेत के साथ,
समुद्र के किनारे खड़े होना भी जद्दोजहद है,
ठीक वैसी ही, जैसी रोज होती है मेरे साथ,
दो वक्त की रोटी कमाने के लिए,
चुकाने पड़ते हैं, कई वक्त की रोटियों के दाम, 

23/7/2015

Saturday, July 18, 2015

ये खुशबू कहाँ से आ रही है रोटी की हवाओं में



ये खुशबू कहाँ से आ रही है रोटी की हवाओं में


आता रहा जाता रहा तेरा चेहरा रात भर ख्यालों में

ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में ,



भूख से लरजते बच्चे ने पूछा माँ से, माँ,

ये खुशबू कहाँ से आ रही है रोटी की हवाओं में,



तेरे जुमले अब जुल्मों में बदल रहे हैं,

क्या हुआ उन वादों का किये थे जो चुनावों में,



लोग मर रहे हैं, तुम लाश गिन रहे हो,

मुश्किल हो गया है सांस लेना, सड़ांध इतनी है हवाओं में,



तुम्हारी सभाओं में बजती तालियों का राज खुल गया है,

खुद ले जाते हो ताली बजाने लोगों को सभाओं में,


18/7/2015

Thursday, July 16, 2015

वो बीच में बचा रहे




वो बीच में बचा रहे





ये कैसा कोहराम मचा है
न उन्हें पता है,
न हमें पता है,
कोई है बीच में,
जो चाहता है कोहराम मचा रहे,
वो हमें काटते रहें,
हम उन्हें काटते रहें,
वो बीच में बचा रहे,


अरुण कान्त शुक्ला 
16 जुलाई, 2015

Tuesday, April 7, 2015

मेरा ज़िंदा भूत उन्हें सताता है,



मेरा ज़िंदा भूत उन्हें सताता है,

पूरा बाग़ घूम लिए
आख़िरी छोर आ गया,
हाथ में कोई फूल नहीं,
पर सुकून है कि,
कांटो पर चलते चलते,
तलुए सख्त हो गए हैं, 
और पथरीली राहों पर चलने के लिए,

चंद पागलों के शहर में घूमने से,
शहर पागल नहीं हो जाता,
लोग आज भी मिलते हैं,
एक दूसरे से
उसी मोहब्बत के साथ,
जैसे मिलते थे पागलों के,
पागल होने के पहले,

उन्हें कितनी बार समझाया,
जट्ट मरा तब जानिये,
जब तेरहीं हो जाए,
उन्होंने तेरहीं नहीं की,
अब वो परेशान हैं कि,
मेरा ज़िंदा भूत उन्हें सताता है,
वो सोचते हैं,
मैं मरा क्यों नहीं,
7/4/15