नाव में पतवार नहीं
हुजूर, आप जहां रहते हैं,
दिल कहते हैं,
उसे ठिकाना नहीं,
शीशे का घर है
संभलकर रहियेगा,
हुजूर
टूटेगा तो जुड़ेगा
नहीं,
यादों की दीवारे
हैं
इश्क का जोड़
बेवफाई इसे सहन
नहीं,
ओ, साजिशें रचने
वालो
घर तुम्हारा है
क्या इसका एतबार
नहीं?
अपना रास्ता खुद
बनाया
मोहताज न रहा
सरपरस्ती मेरी
पसंद नहीं,
वायदों पे एतबार न
करना
झूठे होते हैं
करने वाले कहते
नहीं,
मकां छोड़कर न जाना
भले लोग अब
आसानी से मिलते
नहीं,
ओ, एतबार करने
वालो
आँखें तो खोलो
नाव में पतवार
नहीं,
उसे देना था
मुश्किलें
वो देता रहा
मुस्कराहटों में
आई कमी नहीं,
अरुण कान्त
शुक्ला, 9/11/2017
आदरणीय अरुण जी,आप की कविताओं का अंदाज़ बहुत पसंद आया . सीधे दिल में उतर जाय. शानदार.
ReplyDeleteसादर
आपको बहुत बहुत धन्यवाद, अपर्णा जी|
Deleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteअलग अंदाज़ से लिखी सटीक बातें ... अच्छी कविता ...
आपको बहुत बहुत धन्यवाद, दिगम्बर जी|
Deleteवाह्ह्ह..लाज़वाब अभिव्यक्ति👌
ReplyDeleteधन्यवाद स्वेता जी|
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