बिना ‘विचार’ का कवि,
बिना ‘विचार’ का साहित्यकार,
प्रेमचन्द भी लज्जित होते,
देख साहित्य के साथ ये व्यभिचार,
मुक्तिबोध अश्रु बहाते,
कवि का देख ये व्यवहार,
मैं नहीं रूमानी ‘कवि’
उड़े जो कल्पनाओं में,
यथार्थ को नकार,
बिक चुके हैं नीम, पीपल , बरगद,
बिक चुकी हैं ‘नदियां’ सारी,
कारखानों में
जाए शुद्ध जल,
हमें मिले
जहरीला पानी,
गंगा मैली, यमुना मैली,
सूख गया अरपा
का पानी,
वन न लगें जीवन प्राण,
आदिवासी लगें जंगली पशु,
करे आखेट इनका,
करने वन पर अधिकार,
इन सबसे आँखें मीचे,
करे कविता कवि,
कुछ और नहीं,
बस भक्ति के गमले में है कैद ‘कवि’ लाचार,
बयार देखकर बदले पाला,
छोड़ सच को,
झूठ का पकड़े पाला,
मौत न जगाये जिसकी संवेदना,
बेकार है उससे कुछ भी कहना,
निराला, नागार्जुन को भी,
न मानेगा वो कभी कवि,
वे भी उसके लिए फ़कत
राष्ट्र द्रोही, देश द्रोही ही होंगे,
उनकी बात भी उसे ‘थोप’ लगेगी,
सच है ‘पूंजीवाद’ को सच बात हमेशा,
सिर्फ ‘साम्यवाद’ लगेगी,
कबीर भी उसे फ़कत जुलाहा लगेगा,
उसके दोहे लगेंगे करघे का प्रलाप,
राजा की स्तुती ही जिसे कविता लगे,
ऐसे कवि होने से तो,
तो हम न “कवि’ भले,
मेरी कविता को तुम रुदन समझो,
या समझो ‘अरुण’ का प्रलाप,
पर मित्र कवि, राजा की स्तुती में,
साथ तुम्हारे,
मैं कभी न भर सकूंगा ‘आलाप’
अरुण कान्त शुक्ला
13/12/2016
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