अपना नसीब
खुद बनाते हैं
बड़ा ही बेदर्द
सनम उनका निकला
वो जां लुटा बैठे
वो मैय्यत में भी
न आया,
इश्क अंधा होता
है
वहां तक तो ठीक
था
वो अंधे होकर
पीछे पीछे चल पड़े
ये गजब हो गया,
कुछ दिन पहले तक
उन्हें लगता था
कहीं कोई दहशत
नहीं
अब उन्हें लगता
है
दहशत घुल गई है
आबो-ऐ–हवा में,
वो रास्ता भटके
हैं
घर नहीं भूले
एक दिन लौट
आयेंगे अपने घर
हमें यकीं है,
हम पहले भी कमैय्या
थे
कमा कर खाते थे
हम आज भी कमैय्या
हैं
कमा कर खाते हैं
तेरे नसीब से
हमें कोई मतलब नहीं
हम अपना नसीब खुद
बनाते हैं,
अरुण कान्त शुक्ला
24/9/2017
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