अभी अभी हुई तेज बारीश में पहली बार घर के आँगन तक पानी आ गया| सडक भी लबालब थी और निगम की चौड़ी नालियां भी पानी के साथ मुकाबला नहीं कर
पा रही थीं| बस फिर क्या था 55 साल के बाद दरवाजे पर बैठकर कागज़ की नावें तैराने का आनंद उठाया| बचपन कभी जाता नहीं है| हम उसे बेकार समझकर अवचेतन के कबाड़खाने में डाल देते हैं| पर, जब निकलता है तो उतना ही उल्लासमय और खुशी देने वाला होता है, जितना तब था , जब हम बचपन में थे| मेरा साथ दे रही थी मेरी अनी दीदी|
बचपन, तुम तो ज़रा भी नहीं बदले,
अभी भी उतने ही उल्लसित और आनंदित हो,
जितने तब थे, जब में तुम्हारे अन्दर था या,
तुम मेरे अन्दर थे,
ओह, आज में कितना दुखी हूँ कि,
क्यों तुम्हें बुद्धिमत्ता, बड़ेपन और एटीकेट की चादर उढ़ाकर,
अपने अवचेतन के कबाड़ख़ाने में डाल दिया था,
तुम तो जैसे भी थे,
रह सकते थे मेरे साथ हरदम हमेशा,
और मैं रह सकता था, तुम्हारे साथ उल्लसित, आनंदित,
ठीक वैसे ही,
जैसे, जब मैं तुम्हारे अन्दर था या,
तुम मेरे अन्दर थे,
तुम कहाँ बदले,
बदल तो हम गए,
संसार के छल, प्रपंच और छद्म में,
तुम अगर साथ रहो,
और कभी दूर न जाओ तो,
क्या कहने की जरुरत पड़ेगी इन समझदारों को,
कि, इंसान हो इंसान से प्यार करो,
बचपन में तो अरुण, जाहिद और सलिल ईसाई,
साथ खेला करते थे, सतौलिया और चोर सिपाही,
ये जो समझदारी हमने ओढ़ रखी है,
ये समझदारी है या,
समझदारी ने बना दिया है,
इंसान को उल्लू ,
बचपन, तुम तो ज़रा भी नहीं बदले,
अभी भी उतने ही उल्लसित और आनंदित हो,
जितने तब थे, जब में तुम्हारे अन्दर था या,
तुम मेरे अन्दर थे,
अरुण कान्त शुक्ला
6 अगस्त 2013
बचपन को मनुज कभी नहीं भूल सकता और जीवन भर उसके लिए तरसता है इसीलिए तो जगजीत सिंह गाता है - " ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी , वो कागज़ की क़श्ती वो बारिश का पानी । " सुरुचि-पूर्ण प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय ...
ReplyDeleteवाह क्या बात है , बहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDelete