Friday, July 11, 2014

पृथ्वी पर अब कहाँ कुछ मुफ्त है?

ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है
हवा, पार्क, समुद्र , सूर्योदय और सूर्यास्त
जब मुफ्त थे,
अब, वे हो चुके हैं
हमारे लिए, 

गुजरे जमाने की चीजें...

पृथ्वी पर अब कहाँ कुछ मुफ्त है ?

न हवा मुफ्त है
न पार्क समुन्दर मुफ्त है...

अब तो बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं ने रोक लिया है हवा को
और मुनाफाखोरों ने
अपने कारखानों से निकलते धुएं से
जहरीली बना दिया है हवा को
और हम चुकाते हैं
उसकी कीमत डाक्टर की फीस और दवा की कीमत देकर..

वे सारी जगह जिन्हें पार्क कहते है
अब मुफ्त नहीं हैं
देनी पडती है उसकी कीमत टिकिट खरीदकर
या कारपोरेशनों को टेक्स चुकाकर..
जो लगते हैं मुफ्त हैं
वहां कुत्तों का बसेरा होता है
या बैठे रहते हैं वहां आवारा जोड़े
जिन्हें कभी एक नहीं होना है..

वह साफ़ समुद्र जो छूने लायक है
उसे और उसके तट को बेच दिया है सरकारों ने
धन्नासेठों को पर्यटन और विकास के नाम पर
वहां प्रवेश की टिकिट लगती है
जिसकी कीमत
जो हमारे दो वक्त के आलीशान भोजन से
ज्यादा होती है...

और सूर्योदय और सूर्यास्त
वह तो अब बहुमंजिला इमारतों के लिए
सुरक्षित हो गया है..
हमें तो सूर्य की तपिश झेलनी पड़ती है
जब वह आता है हमारे सर के ऊपर..
 


अब हम विटामिन डी सूर्य से नहीं
केपसूल में लेते हैं
शुद्ध हवा के लिए नाक पर कपड़ा लपेटकर चलते हैं
पार्क में कुत्तों और शोहदों से डरते डरते जाते हैं
और सूर्योदय और सूर्यास्त
गनीमत है
वह हमें टीव्ही दिखा देता है...


अरुण कान्त शुक्ला 
11 जुलाई, 2014 

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर मनभावन रचना ...
    :-)

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  2. ऎसी रचनाएँ रोमांचित कर जाती हैं... एक अलग प्रकार का रोमांच होता है.

    निज जीवन से जुड़े बिम्ब बहुत भाते हैं....

    तनाव भरी चर्चाओं से बाहर आकर ऎसी रचनाएँ सुकून देती हैं. वही मुझे अभी-अभी मिला है.

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी..

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  3. गनीमत है वाली पहली पंक्तियाँ नागार्जुन की नहीं मदन कश्यप की कविता की हैं...

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  4. परमेन्द्र जी , आप सही कह रहे हैं| लिखते समय मुझे स्मृति भ्रम हो गया था| आदरणीय मदन कश्यप जी ने इसे नागार्जुन स्मृति समारोह में एकल कविता पाठ के समय सुनाया था, वर्ष २०११ में| मदन जी से भी क्षमा याचना| इसे सुधार दिया जाएगा|

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