मैं अरुण हूँ,
लाल हूँ,
पर नहीं काल किसी का,
आता धरा पर गगन से,
रोशन अंधियारे को करने ,
दिवस श्रम से थककर चूर,
मानव जब जाता विश्रांति
के आलिंगन में,
आजाद कर देता मैं ,
अंधियारे को चाँद से क्रीड़ा करने ,
मैं अरुण हूँ,
लाल हूँ,
काल नहीं मित्र सभी का ,
आओ लगो ह्रदय मेरे,
मैं हर लूंगा तिमिर,
तुम्हारे भी भीतर का ,
No comments:
Post a Comment