Tuesday, December 27, 2022

स्मृति प्रसंग

ये कैसी सुबह थी

ये कैसी दुपहरी है

न किरणों में उजियारा है

धूप में तपिश है

लगता है मेरे साथ सूरज भी उदास है।

 

दिन जब गुजर रहा है ऐसे

इस दिन की शाम कैसी होगी?

क्या रात भी जागेगी मेरे साथ?

चांद का मुख भी क्या मुरझाया मुरझाया होगा?

क्या भोर कल की भी उदास होगी?

 

इन सारे प्रश्नों का हल है मेरे पास

होंठों पर एक मुस्कान

बच्चे खेलने गये हैं आस-पास

उनके लौटते ही

मेरे चेहरे पर होगी वही मुस्कान।

 23/12/2022

 

Tuesday, November 1, 2022


एक अज़नबी से मुलाक़ात       


एक अज़नबी से मुलाक़ात       

अतीत में झांकना तुम

खूब टटोलना

क्या पाया, क्या खोया?

पर न  देखना कभी खुद को उन तस्वीरों में

जिनसे बाहर निकले तुम्हें एक अरसा हो गया है

तुम्हें वो शख्स अज़नबी लगेगा

खुद से पूछोगे, कौन है ये शख्स

जो घूर रहा है

मुझे 

इन तस्वीरों में से

13/10/2022 

Monday, August 29, 2022

आजादी की 75वीं वर्षगाँठ की हार्दिक बधाई.... मैं किसे दूँ?


आजादी की 75वीं वर्षगाँठ की हार्दिक बधाई

मैं किसे दूँ

मैं किसे दूँ
आजादी की 75वीं वर्षगाँठ की बधाई
इंद्र तुम्हें
या फिर उस
मास्टर छैलसिंह को
जिसने पानी की मटकी को बना दिया ठाकुर का कुआं.
बधाई तो देना है
फिर क्या उन्हें दूँ
जो रोज हमें कहते हैं
वे कर रहे हैं
देश का विकास
लेकर सबका साथ, सबका विश्वास.
या फिर उन्हें दूँ
जो जिम्मेदार हैं
इस उन्माद को देश में फैलाने के लिए
जिससे फिर जाती है मति शिक्षकों तक की
जिनकी जिम्मेदारी है
समाज से छुआछूत और भेदभाव मिटाने की.
या फिर दूँ
गुजरात की सरकार को
जिसने,
'जब आप लालकिले से हमें पढ़ा रहे थे
नारी शक्ति का मान करने का पाठ'
चखाया है आजादी का अमृत उन्हें
जो हैं सामूहिक अपराधी
नारी के मान मर्दन और हत्याओं के
या फिर दे दूँ बधाई
लोकतंत्र की उस सुन्दरी को
जिसे हम सरकार कहते हैं
जो कर रही है छल
लोक से
और बाँट रही है
अमृत ठीक वैसे
जैसे अंधा बांटे रेवड़ी अंधों को बीन बीन
और विष आ रहा है हमारे हिस्से
ये बात और है कि
हम शिव नहीं और मर रहे हैं.
घूर कर देख रहीं
इस मासूम की निगाहें कर रही हैं
हजारों प्रश्न
आपसे-मुझसे
आप बतायेंगे क्या उत्तर उसे मैं दूँ?
आजादी की 75वीं वर्षगाँठ की बधाई
कैसे उसे दूँ?
अरुण कान्त शुक्ला
15 अगस्त 2022

Sunday, May 16, 2021

तब ये प्रश्न उठना जायज है...मरा कौन है?

 

जब एक सांस सुकून की लेने के लिये

तड़पते, अस्पतालों और सड़क पर दम तोड़ते लोग

न झिंझोड़ पाएँ मस्तिष्क को,

 

जब चिताओं से उठती लपटें

जिनमें अपनों ने खुद लिटाया है अपनों को

न झिंझोड़ पाएँ मस्तिष्क को

 

जब गंगा तट पर लगे न जाने कहाँ से बहकर आए शवों को

कोओं, गिद्धों और कुत्तों का भोजन बनते देखना भी

न झिंझोड़ पाये मस्तिष्क को

 

जब गंगा तट पर रेट में दबे शव

उठकर खड़े हो जाएँ और मांगने लगें अपना अधिकार

और यह दृश्य भी

न झिंझोड़ पाये मस्तिष्क को

 

तब ये प्रश्न उठना जायज है

मरा कौन है?

 

अरुण कान्त

17/05/2021


Tuesday, January 29, 2019

हाशिये के आदमी पर कविता

हाशिये के आदमी पर कविता

कविता चौराहे पर देखी
कविता सड़क पर देखी
कविता मंच पर देखी 
कविता के नाम पर 
कवि को चुटकुले सुनाते भी देखा  

कविता हाशिये पर देखी
कविता हाशिये के आदमी पर भी देखी
कवि को हाशिये पर पड़े आदमी पर
कविताएँ सुना सुना कर वाह-वाही लूटते भी देखा

आज उसी कवि को
उन लोगों के साथ खड़ा भी देख लिया
जो जिम्मेदार हैं
आदमी के हाशिये पर पड़ा होने के लिए|

अरुण कान्त शुक्ला

29/1/2019

Monday, January 28, 2019

सर उठाकर जीने वाले... जन गीत

गणतन्त्र दिवस की संध्या में—
सर उठाकर जीने वाले... जन गीत

शनै: शनै: खोया इतना कि,
क्या क्या खोया याद नहीं,
बस याद है तो इतना कि,
खोईं हमारी उम्मीदें,
की कभी कोई फरियाद नहीं,
बंद मुट्ठी हवा में लहराते,
लड़ लड़ कर हक लेते आए हैं,
सर उठाकर जीने वाले,
सर झुकाकर कहाँ जी पाएंगे?

तख्त बदले, ताज बदले,
राजा बदले, राज बदले,
न हम बदले,
न हालात बदले,
न खोईं हमारी उम्मीदें,
की कभी कोई फरियाद नहीं,
सर पे बांधे लाल कफन,
हाथों में जिनके जलती मशाल,
जुबां पर जिनके हो इंकलाब का नारा,
सर झुकाकर कहाँ जी पाएंगे,

पैदा हुए मुंह में जो,
लेकर चांदी के चमचे,
फाकाकशी के दौर में भी,
खीर उन्हें ही मिलती रही,
मुश्किल हुए हमें
चावल कनकी के निवाले भी  
फिर भी, न खोईं हमारी उम्मीदें,
की कभी कोई फरियाद नहीं,
कारखानों में जो फौलाद गलाते,
पर्वतों में राह बनाते,
धरती की कोख से सोना निकालते,
सागर की छाती पर खेते हैं नैय्या,
कुदरत से आँख मिलाकर जीने वाले,
सर झुकाकर कहाँ जी पाएंगे,    
अरुण कान्त शुक्ला

26/1/2019 

Sunday, December 23, 2018

कभी गिरेबां में भी झांककर देखिये जनाब

कभी गिरेबां में भी झांककर देखिये जनाब

असलियत सिर्फ सामने देखने से नहीं पता चलती,
कभी गिरेबां में भी झांककर देखिये जनाब,

सवाल पूछते रहना नहीं कोई खासियत,
सवालों के कभी जबाब भी दीजिए जनाब,

माना, आपने करोड़ों को पहनाई है टोपी,
कभी करोड़ों के खातिर आप भी टोपी पहनें जनाब,

बहुत हुईं आपकी 'मन की बातें',
बेमन से सही, अब हमारे 'मन की बात' भी सुनिए जनाब,

'पाक' में गले लगने, अम्मी के चरण छूने का दिखावा तो बहुत हुआ,
देश में भी तो किसी अम्मीं के लाल से, एक बार, गले मिलिए जनाब,

अरुण कान्त शुक्ला
23/12/2018