गणतन्त्र
दिवस की संध्या में—
सर उठाकर
जीने वाले... जन गीत
शनै: शनै: खोया इतना कि,
क्या क्या खोया याद नहीं,
बस याद है तो इतना कि,
न खोईं हमारी
उम्मीदें,
की कभी कोई फरियाद नहीं,
बंद मुट्ठी हवा में लहराते,
लड़ लड़ कर हक लेते आए हैं,
सर उठाकर जीने वाले,
सर झुकाकर कहाँ जी पाएंगे?
तख्त बदले, ताज
बदले,
राजा बदले, राज बदले,
न हम बदले,
न हालात बदले,
न खोईं हमारी उम्मीदें,
की कभी कोई फरियाद नहीं,
सर पे बांधे लाल कफन,
हाथों में जिनके जलती मशाल,
जुबां पर जिनके हो इंकलाब का नारा,
सर झुकाकर कहाँ जी पाएंगे,
पैदा हुए मुंह में जो,
लेकर चांदी के चमचे,
फाकाकशी के दौर में भी,
खीर उन्हें ही मिलती रही,
मुश्किल हुए हमें,
चावल कनकी के निवाले भी
फिर भी, न
खोईं हमारी उम्मीदें,
की कभी कोई फरियाद नहीं,
कारखानों में जो फौलाद गलाते,
पर्वतों में राह बनाते,
धरती की कोख से सोना निकालते,
सागर की छाती पर खेते हैं नैय्या,
कुदरत से आँख मिलाकर जीने वाले,
सर झुकाकर कहाँ जी पाएंगे,
अरुण कान्त शुक्ला
26/1/2019