Thursday, July 24, 2014

चेहरा तो केवल चेहरा है..


चेहरा तो केवल चेहरा है
चेहरे पर नहीं लिखा रहता किसी का मजहब
यही बात हम कहते रहे
और वो करते रहे क़त्ल मजहब के नाम पर

खूँ तो सबका खूँ है
खूँ पर कहाँ लिखा रहता किसी का मजहब
यह बात हम कहते रहे
और वो बहाते रहे खूँ मजहब के नाम पर

आज जब बात पहुँची है
रोटी से होते हुए किसी के मजहबी हकों तक
वो हमें समझा रहे हैं
चेहरे पर नहीं लिखा रहता किसी का मजहब

सुनो तुम हमें मत बताओ
तुम नहीं पहचानते हो चेहरों से मजहब को
यदि ऐसा है तो क्यों
क्यों मारा चेहरे पर दाढ़ी वाले साफ्टवेयर इंजीनियर को

सुनो मैं तुम्हें बताता हूँ
बात सीमित नहीं केवल इनसान के चेहरों तक
तुम केवल मजहब पहचानते हो
तभी तुम्हारी बातें सीमित रहती हैं गुजरात से मुज्जफरनगर तक

सुनो मैं तुम्हें बताता हूँ
एक बार नकली ही दाढ़ी लगाकर खड़े हो जाना शीशे के सामने
तुम्हें, जिनकी तुम वकालत कर रहे हो
नहीं मानेंगे बाजपेयी अवस्थी या शुक्ला
और समझेंगे तुम्हें भी पूरा मुसलमां और फिर

इसलिए ऐसा नहीं करना मेरे बच्चे
उनके तर्कों में मत जाओ
वो चेहरे और मजहब 

दोनों से अच्छे से पहचानते हैं इंसान को
खूंरेजी उनका पेशा है वो दोनों तरफ हैं उनसे बचो
उन्हें हिकारत से देखो उसी में सबका भला है


अरुण कान्त शुक्ला
24जुलाई, 2014  


Friday, July 11, 2014

पृथ्वी पर अब कहाँ कुछ मुफ्त है?

ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है
हवा, पार्क, समुद्र , सूर्योदय और सूर्यास्त
जब मुफ्त थे,
अब, वे हो चुके हैं
हमारे लिए, 

गुजरे जमाने की चीजें...

पृथ्वी पर अब कहाँ कुछ मुफ्त है ?

न हवा मुफ्त है
न पार्क समुन्दर मुफ्त है...

अब तो बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं ने रोक लिया है हवा को
और मुनाफाखोरों ने
अपने कारखानों से निकलते धुएं से
जहरीली बना दिया है हवा को
और हम चुकाते हैं
उसकी कीमत डाक्टर की फीस और दवा की कीमत देकर..

वे सारी जगह जिन्हें पार्क कहते है
अब मुफ्त नहीं हैं
देनी पडती है उसकी कीमत टिकिट खरीदकर
या कारपोरेशनों को टेक्स चुकाकर..
जो लगते हैं मुफ्त हैं
वहां कुत्तों का बसेरा होता है
या बैठे रहते हैं वहां आवारा जोड़े
जिन्हें कभी एक नहीं होना है..

वह साफ़ समुद्र जो छूने लायक है
उसे और उसके तट को बेच दिया है सरकारों ने
धन्नासेठों को पर्यटन और विकास के नाम पर
वहां प्रवेश की टिकिट लगती है
जिसकी कीमत
जो हमारे दो वक्त के आलीशान भोजन से
ज्यादा होती है...

और सूर्योदय और सूर्यास्त
वह तो अब बहुमंजिला इमारतों के लिए
सुरक्षित हो गया है..
हमें तो सूर्य की तपिश झेलनी पड़ती है
जब वह आता है हमारे सर के ऊपर..
 


अब हम विटामिन डी सूर्य से नहीं
केपसूल में लेते हैं
शुद्ध हवा के लिए नाक पर कपड़ा लपेटकर चलते हैं
पार्क में कुत्तों और शोहदों से डरते डरते जाते हैं
और सूर्योदय और सूर्यास्त
गनीमत है
वह हमें टीव्ही दिखा देता है...


अरुण कान्त शुक्ला 
11 जुलाई, 2014 

Thursday, July 10, 2014

प्रधानमंत्री कोई भी हो ..



प्रधानमंत्री कोई भी हो ..
वो न सुनता है और न बोलता है..
जनता आजाद है ..
उसे चुनती है..
वो गुलाम है उनका..
जिनके पैसों से वो चुनाव लड़ता है..

प्रधानमंत्री कोई भी हो ..
वो न सुनता है और न बोलता है..
जिनके हवाई जहाज़ों और हेलीकाप्टरों में बैठकर..
प्रचार के लिए वो पूरे देश में घूमता है..
चुनाव के बाद वे उसे दोनों हाथ और दोनों पाँव पर खड़ा करके..
उसके नथुने में नकेल कसकर..
जोत लेते हैं अपने विकास रथ में..

प्रधानमंत्री कोई भी हो..
वो न सुनता है और न बोलता है..
उसका काम नौटंकी की नचनिया सा है..
जो अपने नृत्य से मोह लेती है दर्शकों को..
लेकिन घर भरती है अपने मालिक का..

प्रधानमंत्री कोई भी हो..
वो न सुनता है और न बोलता है..
उसे दोनों कनपटियों पर पट्टे बंधे पहाडी घोड़े की तरह..
चलना पड़ता है उसी रास्ते पर..
जिस पर उसे उसके मालिक चलाते हैं..
जो उनकी सोच में विकास का रास्ता है..

अरुण कान्त शुक्ला
7
जुलाई, 2014

चेहरे बदल जाते हैं..


चेहरे बदल जाते हैं..
लोग बदल जाते हैं ..
लोगों की फितरतें बदल जाती हैं..
शुक्र है तस्वीरें नहीं बदलतीं..
 

साथी बदल जाते हैं..
राहें बदल जाती हैं..
ख़्वाब बदल जाते हैं..
पर, शुक्र है यादें नहीं बदलतीं...
 

सोच बदल जाती है..
मंजिल बदल जाती है..
कोठियां बन जाती हैं..
पर, जिनकी कमाई से ये होता है..
उनकी मुफलिसी नहीं बदलती...


वादे बदल जाते हैं..
इरादे बदल जाते हैं..
चाहत बदल जाती है.. 
पर, दुनिया में रहते हैं..
कुछ ऐसे भी लोग तस्वीर की तरह..
जिनके चेहरे कभी नहीं बदलते...



अरुण कान्त शुक्ला
6जून, 2014