Thursday, December 21, 2017

तन्हां इस शहर में नहीं कोई शख्स

तन्हां इस शहर में नहीं कोई शख्स  

तन्हाई आये भी तो कैसे आये उनके पास
सुबह होती है जिनकी, शाम की रोटी की फ़िक्र के साथ ,

तन्हां इस शहर में नहीं कोई शख्स ‘अरुण’
फ़िक्र-ओ-गम की बारात है सबके साथ,

पीठ पर लादे प्लास्टिक का थैला, नहीं वो अकेला
भोंकते कुत्तों की फ़ौज पीछे पीछे है उसके साथ,

'सुबह' जब भी होगी, बहुत खूबसूरत होगी
सोते हैं हर रात इस ख्वाहिश के साथ,     

प्यार-ओ-रोमांस के गीत भी गायेंगे एक दिन
अभी तो खड़े हैं मजलूमों के साथ,

अरुण कान्त शुक्ला

21/12/2017    

Saturday, December 16, 2017

घर में रहें राधा डरी डरी

घर में रहें राधा डरी डरी

छोड़ गए बृज कृष्ण, गोपी किस्से खेलें फ़ाग
कहला भेजा मोहन ने, नहीं वन वहाँ, क्या होंगे पलाश?

नदियों में जल नहीं, न तट पर तरुवर की छाया
गोपियाँ भरें गगरी सार्वजनिक नल से, आये तो क्यों आये बंसीवाला?

घर में रहें राधा डरी डरी, सड़कों पर न कोई उनका रखवाला
अब तो आ जाओ तुम, का न हुई बड़ी देर नंदलाला?

मथुरा में था एक ही कंस, बृज में हो गया कंसों का बोलबाला
कब सुधि लोगे श्याम तुम, सुन लो राधा का नाला?

अरुण कान्त शुक्ला
16/12/2017