Saturday, November 11, 2017

ये आलिमां भी बहायेंगे आब-ऐ-तल्ख़

ये आलिमां भी बहायेंगे आब-ए-तल्ख़
कैसे कैसों को दिया है,
इंसान होकर सांप से डसते रहे,
उन्हें भी दिया है,
इस बार क्यों न सांप से ही डसवा लें,
दूध की जगह खून पिलवा दें,
दो गज जमीन के नीचे,
2×3
के गढढे में,
इंसानियत को दफना दें,

ये तय जानकर,
खून के दरिया को हमें पार न करना होगा,
बाकी कायनात को,
खूरेंज को इनायत फरमा दें,
जिन्दगी भर जिन असूलों के लिए लड़े,
क्यूं कर उनसे मुंह फेर लें,
क्यूं इतने खुदगर्ज हो जायें,
बिना दरवाजे के घर में कैद हो जायें,
कि बाकी दुनिया दरिन्दे को दिला दें हम,

पुराने जख्म अभी भरे भी न थे,
यादें ताजा थीं,
जनाजे उठाने की बात तो दूर,
घरों में लोग रोने को भी न बचे थे,
कि, तुमने फिर,
मुज्जफरनगर में खून का दरिया बहा दिया,
84 कोस की परिक्रमा न हो सकी तो,
84 कोस तक लाशों का बिस्तर सजा दिया,

ये अज़ाब हर दौर में इंसा झेलते आया है,
अदीबों का पाला बदलना नई बात नहीं,
आब-ए-चश्म जिनके सूख चुके,
तुम्हारे आफ़ात को जो भुला चुके,
अदीबों की फ़ौज आज फिर खड़ी है,
खूंरेंजों के साथ,
ये आलिमां भी बहायेंगे आब-ए-तल्ख़,
जब इंसानियत पर बरसेंगे आफ़ात,

क़ातिल को दे दें रहनुमाईं,
और कैद हो जायें हम,
आदमियत को डाल दें कफ़स में,
ऐसा कैसे हो जाने दें हम,
आगे तुम्हें दिखे है तारीक,
पर, खुर्शीद ऊगता है ज़ाबिता,
इस काईदे पर कैसे भरोसा खोयें हम,

अरुण कान्त शुक्ला,
1अक्टोबर, 2013


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