Thursday, November 23, 2017

तैरना आना पहली शर्त है

तैरना आना पहली शर्त है

नाव भी मैं, खिवैय्या भी मैं
लहरों से सीखा है मैंने
तूफां-ओ-आंधी का पता लगाना,

जो बहे लहरों के सहारे, डूबे हैं
तैरना आना पहली शर्त है
समंदर में उतरने की,

धारा के साथ तो बहते, शव हैं  
मैं शव तो नहीं
मुझे आता है दरिया पार करना,

तुम्हें मिला समंदर, तुम्हारी मिल्कियत नहीं  
छोटा सा कंकड़ डूबकर तालाब में
उठ्ठा देता है बड़ी बड़ी लहरें,

अरुण कान्त शुक्ला,
23/11/2017  
   
   


Sunday, November 19, 2017

पीढ़ियाँ पर बढ़ेंगी इसी राह पर आगे..

पीढ़ियाँ पर बढेंगी इसी राह पर आगे

कोट के काज में फूल लगाने से
कोट सजता है
फूल तो शाख पर ही सजता है,

क्यों बो रहे हो राह में कांटे
तुम्हें नहीं चलना
पीढ़ियाँ पर बढेंगी, इसी राह पर आगे,

तुम ख़ूबसूरत हो, मुझे भी दिखे है
ख़ूबसूरती के पीछे
है जो छिपा, वो भी दिखे है,

मैं न हटाता चाँद सितारों से नजरें
पर क्या करूँ
धरती से उठती नहीं, अश्क भरी नजरें,

मेरे गीत खुशियों से भरे पड़े हैं
मेरे साथ सिर्फ
बुलंद आवाज में उन्हें, तुम्हें गाना होगा,

जब भी सख्त हुए पहरे गीतों पर
गाये लोगों ने
इंक़लाब के गीत, और बुलंद आवाज में,

रास्ते मुसाफिर को कहीं नहीं ले जाते
चलना पड़ता है
कांटों पर, मुसाफिर, मंजिल पाने के लिए,

अरुण कान्त शुक्ला, 19/11/2017         

 

 


  

Saturday, November 11, 2017

नाव में पतवार नहीं

नाव में पतवार नहीं

हुजूर, आप जहां रहते हैं,
दिल कहते हैं,
उसे ठिकाना नहीं,

शीशे का घर है
संभलकर रहियेगा, हुजूर
टूटेगा तो जुड़ेगा नहीं,

यादों की दीवारे हैं
इश्क का जोड़
बेवफाई इसे सहन नहीं,

ओ, साजिशें रचने वालो
घर तुम्हारा है
क्या इसका एतबार नहीं?

अपना रास्ता खुद बनाया
मोहताज न रहा
सरपरस्ती मेरी पसंद नहीं,

वायदों पे एतबार न करना
झूठे होते हैं
करने वाले कहते नहीं,

मकां छोड़कर न जाना
भले लोग अब
आसानी से मिलते नहीं,

ओ, एतबार करने वालो
आँखें तो खोलो
नाव में पतवार नहीं,

उसे देना था मुश्किलें
वो देता रहा
मुस्कराहटों में आई कमी नहीं,


अरुण कान्त शुक्ला, 9/11/2017     

    

ये आलिमां भी बहायेंगे आब-ऐ-तल्ख़

ये आलिमां भी बहायेंगे आब-ए-तल्ख़
कैसे कैसों को दिया है,
इंसान होकर सांप से डसते रहे,
उन्हें भी दिया है,
इस बार क्यों न सांप से ही डसवा लें,
दूध की जगह खून पिलवा दें,
दो गज जमीन के नीचे,
2×3
के गढढे में,
इंसानियत को दफना दें,

ये तय जानकर,
खून के दरिया को हमें पार न करना होगा,
बाकी कायनात को,
खूरेंज को इनायत फरमा दें,
जिन्दगी भर जिन असूलों के लिए लड़े,
क्यूं कर उनसे मुंह फेर लें,
क्यूं इतने खुदगर्ज हो जायें,
बिना दरवाजे के घर में कैद हो जायें,
कि बाकी दुनिया दरिन्दे को दिला दें हम,

पुराने जख्म अभी भरे भी न थे,
यादें ताजा थीं,
जनाजे उठाने की बात तो दूर,
घरों में लोग रोने को भी न बचे थे,
कि, तुमने फिर,
मुज्जफरनगर में खून का दरिया बहा दिया,
84 कोस की परिक्रमा न हो सकी तो,
84 कोस तक लाशों का बिस्तर सजा दिया,

ये अज़ाब हर दौर में इंसा झेलते आया है,
अदीबों का पाला बदलना नई बात नहीं,
आब-ए-चश्म जिनके सूख चुके,
तुम्हारे आफ़ात को जो भुला चुके,
अदीबों की फ़ौज आज फिर खड़ी है,
खूंरेंजों के साथ,
ये आलिमां भी बहायेंगे आब-ए-तल्ख़,
जब इंसानियत पर बरसेंगे आफ़ात,

क़ातिल को दे दें रहनुमाईं,
और कैद हो जायें हम,
आदमियत को डाल दें कफ़स में,
ऐसा कैसे हो जाने दें हम,
आगे तुम्हें दिखे है तारीक,
पर, खुर्शीद ऊगता है ज़ाबिता,
इस काईदे पर कैसे भरोसा खोयें हम,

अरुण कान्त शुक्ला,
1अक्टोबर, 2013


Tuesday, November 7, 2017

पूनम की रात को भी चाँद गायब हो गया


अमावस की रात को चाँद का गायब होना
कोई नई बात नहीं
जहरीली हवाओं की धुंध इतनी छाई
पूनम की रात को भी चाँद गायब हो गया|

दिल में सभी के मोहब्बत रहती है
कोई नई बात नहीं
हमने मोहब्बत इंसानियत से की
ये गजब हो गया|

कहते हैं दर्द बयां करने से कम होता है
हमने बयां किया
दर्द तो कम न हुआ
लोग कहने लगे, मैं शायर हो गया|

इश्क-रश्क-माशूक की मोहताज नहीं
शायरी वो ज़ज्बा है अरुण
मशाल भी है, इंक़लाब भी है,
जिसे लगी 'चाहत' वतन की, सरफरोश हो गया |

अरुण कान्त शुक्ला, 8/1/2017 

Sunday, November 5, 2017

जिन्दगी का शायर हूँ ..

जिन्दगी का शायर हूँ

जिन्दगी का शायर हूँ, मौत से क्या मतलब
मौत की मर्जी है, आज आये, कल आये|

टूट रहे हैं, सारे फैलाए भरम ‘हाकिम’ के,
हाकिम’ को चाहे यह बात, समझ आये न आये|

वो ‘इंसा’ गजब वाचाल निकला
बात उसकी, किसी को समझ आये न आये|

‘आधार’ जरुरी है ‘जीवन’ के लिये
‘आधार’ बिना रोटी नहीं, इंसा जी पाये न जी पाये

गाफिल रहे, जिन्दगी खुशनुमा बनाने रदीफ़-काफिये मिलाते रहे
जिन्दगी की ‘गजल’ लय-ताल से नहीं चलती, समझ न पाये

अरुण कान्त शुक्ला, 6/11/2017    


Friday, November 3, 2017

लोग सुनकर क्यूं मुस्कराने हैं लगे

लोग सुनकर क्यूं मुस्कराने हैं लगे

और भी खबसूरत अंदाज हैं मरने के लेकिन
इश्क में जीना 'अरुण' को सुहाना है लगे 

क्यूं करें इश्क में मरने की बात
इश्क तो जीने का खूबसूरत अंदाज है लगे 

दिल में आई है बहार जबसे 
पतझड़ को आने से डर है लगे 

हमें क्या मालूम महबूब का पता 
दिल ही उसका अब घर है लगे 

नजरें चुराईं, नजरें झुकाईं, लाख जतन किये   
मिलीं नजरें तो हटाने का मन न करे 

इश्क को लाख छुपाया, छुपा न सके
जो हम उड़े उड़े से वो खोये खोये रहने हैं लगे

एक गम होता तो बता देते सबको 
उनसे मिलना छोड़ अब सब ग़मगीन है लगे

फ़िजाओं में खुशबू सी फ़ैली है बात
फ़साने हमारे लोग हमें ही सुनाने हैं लगे

नया है, नहीं पुराना अपना फ़साना 
सुनकर आप क्यूं मुस्कराने हैं लगे  

जमाने ने दिए गम बहुत पर तुम्हें नहीं भूले हम 
जताने ये तराने इश्क के गाने हैं लगे


अरुण कान्त शुक्ला, 4/11/20