Saturday, September 23, 2017

अपना नसीब खुद बनाते हैं

अपना नसीब खुद बनाते हैं

बड़ा ही बेदर्द
सनम उनका निकला
वो जां लुटा बैठे
वो मैय्यत में भी न आया,  

इश्क अंधा होता है
वहां तक तो ठीक था
वो अंधे होकर पीछे पीछे चल पड़े  
ये गजब हो गया,

कुछ दिन पहले तक
उन्हें लगता था
कहीं कोई दहशत नहीं
अब उन्हें लगता है
दहशत घुल गई है
आबो-ऐ–हवा में,

वो रास्ता भटके हैं
घर नहीं भूले
एक दिन लौट आयेंगे अपने घर
हमें यकीं है,

हम पहले भी कमैय्या थे
कमा कर खाते थे
हम आज भी कमैय्या हैं
कमा कर खाते हैं
तेरे नसीब से हमें कोई मतलब नहीं
हम अपना नसीब खुद बनाते हैं,

अरुण कान्त शुक्ला

24/9/2017  

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