Monday, December 19, 2016

घुप्प, शुभ्र घना कोहरा

घुप्प, शुभ्र घना कोहरा


घुप्प, कारी अमावस की रात के अँधेरे को
परास्त कर देता है
एक छोटे से टिमटिमाते दिए का प्रकाश
पर घुप्प, शुभ्र घने कोहरे को
कहाँ भेद पाता है अग्नि पिंड सूर्य का प्रकाश

प्रकाश का अँधेरे को परास्त करना है
अज्ञान पर ज्ञान की जीत
पर, कोहरे को परास्त नहीं कर पाता प्रकाश
क्योंकि, कोहरा अज्ञान नहीं
ज्ञान पर पड़ा अंधेरा है

तलाशते रहेंगे अनवरत अनंत काल तक
अपनों के बीच अपनी जमीन
सबके साथ
जब तक छाया रहेगा मानव के मष्तिष्क में
ईश्वर और धर्म के भय का गहरा कोहरा 
जिसे फैलाते हैं 
उसी अस्तित्वहीन ईश्वर के धर्मी दूत 


समय आ गया है, पहचाने उन्हें
फैला रहे हैं जो ज्ञान पर
घुप्प, शुभ्र घना कोहरा
समय रहते यदि रोका न इनको
धिक्कारेंगी आने वाली पीढ़ियाँ
सदियों तक हमको

अरुण कान्त शुक्ला 
 12/02/2016 

Saturday, December 17, 2016

भला 'मौन'

भला ‘मौन’

मौन भला होता है,
अनेक बार,
‘बकवास’ बोलते रहने से,
तुम्हारा मौन इसीलिये भला लगा मुझे,
इस बार,
बचा तो मैं एक और,
बकवास सुनने से,

कितना अच्छा होता,
तुम्हारे मुंह से निकले शब्दों के,
अर्थ भी कुछ होते,
कथनी और करनी में,
रिश्ते भी कुछ होते,
बच जाते दबे-कुचले,
तुम्हारी ‘सनक’ के नीचे पिसने से,

लोकतंत्र में ‘लोक’ से न रहा,
कभी तुम्हारा रिश्ता,
‘तंत्र’ रहा हमेशा,
तुम्हारे शासन में सिसकता,
इतिहास में दर्ज तो प्रत्येक शासक होता है,
पर, तुम्हारा ‘काल’ तो लिखा जाएगा,
स्याह स्याही के हर्फों से,        

अरुण कान्त शुक्ला

16/12/2016    

Thursday, December 15, 2016

दौर कहाँ बदला है मित्र ?

दौर कहाँ बदला है मित्र?

न रूस, न चायना में हो रही अब बारिश है, 
न भारत में खोलता कोई छाता है, 
न किसी को मास्को की ठंड से छींक आती है, 
फर्क यही है हमारी आलोचना की सच्चाई, 
अब उन्हें बहुत डराती है, 
अपने गलतको सहीबताने,
हमें साम्यवादी बताने की,
ये उनकी पुरानी साजिश है,

अमरीका,ब्रिटेन के तलुए चाटने वाले,
जब से आए हैं सत्ता में, 
देश नहीं तब से,
मनमोहन, मोदी के निर्देशों पर, 
विश्व व्यापार संगठन , विश्व बैंक और आईएमएफ 
के निर्देशों पर चलता है,
राष्ट्रप्रेम, देशप्रेम के जुमले उनके,
सिर्फ हमें बहलाने की साजिश है,

दौर कहाँ बदला है मित्र?
ये राजा भी,
देश की धरती, खनिज, जंगल बेचने,
विदेश में फेरी लगाने जाता है, 
 
गिडगिडाते रोज विदेशी कंपनियों के सामने, 
'
मेक इन इंडिया' का कहाँ 'इंडिया' से कोई नाता है? 
नोटबंदी नहीं कालेधन, भ्रष्टाचार, आतंकवाद के खिलाफ,
गरीबों के जायज धन को लूटने रची साजिश है,

हमें सिखाये भारत का रास्ता, 
युद्ध से बुद्ध को जाता है,
सिद्धार्थ नहीं बना बुद्ध,
युद्ध से, 
 
बुद्ध ने न की कभी की बात युद्ध की,
अशोक आज भी इतिहास में नृशंस हत्यारा कहलाता है, 
अपना की इतिहास भुलाने के लिए राजा ने,
बुद्ध से जुड़ने की रची ये साजिश है,

साम्यवाद तो कभी आया न विश्व में, 
समाजवाद से भारत का रहा नहीं दूर का नाता, 
पर, इनकी बुराई पर ही कुछ लोगों का जीवन है पलता, 
तेरहीं खाकर जीने वाले गमछा धारी को, 
भला घर का भोजन है कब रुचता?
हमें भला कहाँ उज़्र साम्यवादी कहलाने में,
पर, समझना जरूरी है कि क्या उनकी साजिश है?

अरुण कान्त शुक्ला,
14/12/2016


Tuesday, December 13, 2016

तो हम न “कवि’ भले ..

    
बिना ‘विचार’ का कवि,
बिना ‘विचार’ का साहित्यकार,
प्रेमचन्द भी लज्जित होते,
देख साहित्य के साथ ये व्यभिचार,

मुक्तिबोध अश्रु बहाते,
कवि का देख ये व्यवहार,
मैं नहीं रूमानी ‘कवि’   
उड़े जो कल्पनाओं में,
यथार्थ को नकार,

बिक चुके हैं नीम, पीपल , बरगद,
बिक चुकी हैं ‘नदियां’ सारी,
कारखानों में जाए शुद्ध जल,
हमें मिले जहरीला पानी,
गंगा मैली, यमुना मैली,
सूख गया अरपा का पानी,

वन न लगें जीवन प्राण,
आदिवासी लगें जंगली पशु,
करे आखेट इनका,
करने वन पर अधिकार,   

इन सबसे आँखें मीचे,
करे कविता कवि,
कुछ और नहीं,
बस भक्ति के गमले में है कैद ‘कवि’ लाचार,

बयार देखकर बदले पाला,
छोड़ सच को,
झूठ का पकड़े पाला,
मौत न जगाये जिसकी संवेदना,
बेकार है उससे कुछ भी कहना,

निराला, नागार्जुन को भी,
न मानेगा वो कभी कवि,
वे भी उसके लिए फ़कत
राष्ट्र द्रोही, देश द्रोही ही होंगे,
उनकी बात भी उसे ‘थोप’ लगेगी,
सच है ‘पूंजीवाद’ को सच बात हमेशा,
सिर्फ ‘साम्यवाद’ लगेगी,  

कबीर भी उसे फ़कत जुलाहा लगेगा,
उसके दोहे लगेंगे करघे का प्रलाप,
राजा की स्तुती ही जिसे कविता लगे,
ऐसे कवि होने से तो,
तो हम न “कवि’ भले,

मेरी कविता को तुम रुदन समझो,
या समझो ‘अरुण’ का प्रलाप,
पर मित्र कवि, राजा की स्तुती में,
साथ तुम्हारे,
मैं कभी न भर सकूंगा ‘आलाप’

अरुण कान्त शुक्ला
13/12/2016       


        

हाँ जनाब, ये काले धन के स्वामी कुकुर ही हैं..

जब अपहरण हो रहा था
हमारे नीम, पीपल, बरगद का,
हल्दी, सौंठ और अदरक का,
पेटेंट करा रहीं थीं इनका,
विदेशी कंपनियां,
तब तुमको भा रहा था ‘मोहन’ का नवउदारवाद,
तुम बैठे थे अपने स्वार्थ में होकर चूर,
कि, बढ़ जायेंगे तुम्हारे वेतन और मजूरी,
अम्बानी, माल्या, टाटा, बिड़ला जैसे ऊँचे थे तुम्हारे ख़्वाब,
रिश्वत, कालाधन, घूसखोरी, घपले जैसे शब्द,
तुम्हारे कान में घोलते थे शीशा,
जब मुझसे छीने सरकारी पैसे से,
उद्योगपति बिना उत्पादन बना रहे थे संपत्ति,
मेरी बातें तब भी तुमको लगती थीं विपत्ति,  
तुम मेरे पीछे पड़ जाते थे कुकुर जैसे,
तुम्हें लगता था मैं विकास विरोधी,
तब भी था तुम्हारे लिए मैं देशद्रोही, राष्ट्र द्रोही,
आज जब लोग मर रहे हैं लोग कतार में,
उनकी तरफदारी करता मैं तुमको लगता हूँ,
मैं फिर स्वच्छता विरोधी, देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही,
मुझसे कहते हो इंतज़ार करो पचास दिन,
फिर, फिर जायेंगे हर कुकुर के दिन,
हाँ जनाब, ये काले धन के स्वामी कुकुर ही हैं,
कोई शक नहीं ‘फिरेंगे’ इनके दिन,
हमें तो खटना है, ऐसे ही रात-दिन,
तब क्यों तुम्हें याद आ रहे हैं,
नीम, पीपल और बरगद,
स्पष्ट करो मित्र कवि,
क्या है इसके पीछे तुम्हारा मकसद,
माना कि ‘मौन’ बुरा है,
पर, ‘शेखी बघारना’ उससे भी बुरा है,
रफ्ता रफ्ता ‘साजिशें’ रचता दौर भी,
तुम्हें दौर–ऐ-तरक्की लग रहा है,
तब क्यों, गमले में,
नीम-पीपल-बरगद का कैद होना अखर रहा है,

अरुण कान्त शुक्ला

13/12/2016