Friday, July 15, 2016

आदमी, कारवाँ और आदमियत


अकेले चलकर नहीं पहुंचा है,
आदमी आदमियत तक,
आदमी आज जहां है,
कारवाँ में ही चलकर पहुँचा है,
भीड़ से मंजिल का कोई वास्ता नहीं दोस्त,
भीड़ तो हत्याएं करती है,
कारवाँ मंजिल तय करता है,
भीड़ का हिस्सा जब आदमी था,
आदमी कहां वो तो आदम था,
भीड़ में आज भी आदम हैं,
आदमियों का कारवां तो धीरे धीरे सही,
बढ़ रहा है मंजिल की ओर,

6/02/2016

पत्थर, पहाड़, दिल और झरने


झरने पत्थरों से नहीं
पहाड़ों के दिल से निकलते हैं
कभी देखिये खुद को पहाड़ बनाकर
आंसुओं के झरने फूटेंगे दिल में सुराख बनाकर

दर्द से दिल का रिश्ता
बाती और मोम सा है
किसी के दर्द से पिघले नहीं
वो दिल कैसा है ?

पहाड़ से झरने नीचे झरते हैं
आँख से आंसू नीचे ढलकते हैं
ये बात तेरी मेरी नहीं, उनकी है
जो दिल की जगह पत्थर रखते हैं
4/2/2016 

Thursday, July 14, 2016

मनुष्यता जहां खो जाती है..

शब्द जहां थोथे पड़ जाते हैं, 
संवेदना जहां मर जाती है, 
उस मोड़ पर आकर खड़े हो गए हम, 
मनुष्यता जहां खो जाती है,

दर्द बयां करने से क्या होगा यहाँ, 
मुरदों की ये बस्ती है, 
लाशें बिकती हैं महंगी यहाँ, 
जिन्दों की जाने सस्ती हैं,

इंसान रेंगता यहाँ, 
दो हाथों पैरों पर, 
सियार भेड़िये चलते दो पांवों पर, 
अजब ये बस्ती है,


सांस लेने को अगर कहते हो ज़िंदा रहना, 
तो हम ज़िंदा हैं, 
पर, नहीं हमारी कोई हस्ती है,
सोच में जिनकी बसा शौचालय, 
उन्हीं की आज हस्ती है

जो ज़िंदा हैं वो बोलेंगे, 
जो बोलेंगे वो मरेंगे, 
जिंदा रहने की शर्त यहाँ चुप रहना है,
है ये रीत अजब, 
पर, यही रीत आज चलती है,


अरुण कान्त शुक्ला
14/7/2016