Tuesday, December 13, 2016

हाँ जनाब, ये काले धन के स्वामी कुकुर ही हैं..

जब अपहरण हो रहा था
हमारे नीम, पीपल, बरगद का,
हल्दी, सौंठ और अदरक का,
पेटेंट करा रहीं थीं इनका,
विदेशी कंपनियां,
तब तुमको भा रहा था ‘मोहन’ का नवउदारवाद,
तुम बैठे थे अपने स्वार्थ में होकर चूर,
कि, बढ़ जायेंगे तुम्हारे वेतन और मजूरी,
अम्बानी, माल्या, टाटा, बिड़ला जैसे ऊँचे थे तुम्हारे ख़्वाब,
रिश्वत, कालाधन, घूसखोरी, घपले जैसे शब्द,
तुम्हारे कान में घोलते थे शीशा,
जब मुझसे छीने सरकारी पैसे से,
उद्योगपति बिना उत्पादन बना रहे थे संपत्ति,
मेरी बातें तब भी तुमको लगती थीं विपत्ति,  
तुम मेरे पीछे पड़ जाते थे कुकुर जैसे,
तुम्हें लगता था मैं विकास विरोधी,
तब भी था तुम्हारे लिए मैं देशद्रोही, राष्ट्र द्रोही,
आज जब लोग मर रहे हैं लोग कतार में,
उनकी तरफदारी करता मैं तुमको लगता हूँ,
मैं फिर स्वच्छता विरोधी, देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही,
मुझसे कहते हो इंतज़ार करो पचास दिन,
फिर, फिर जायेंगे हर कुकुर के दिन,
हाँ जनाब, ये काले धन के स्वामी कुकुर ही हैं,
कोई शक नहीं ‘फिरेंगे’ इनके दिन,
हमें तो खटना है, ऐसे ही रात-दिन,
तब क्यों तुम्हें याद आ रहे हैं,
नीम, पीपल और बरगद,
स्पष्ट करो मित्र कवि,
क्या है इसके पीछे तुम्हारा मकसद,
माना कि ‘मौन’ बुरा है,
पर, ‘शेखी बघारना’ उससे भी बुरा है,
रफ्ता रफ्ता ‘साजिशें’ रचता दौर भी,
तुम्हें दौर–ऐ-तरक्की लग रहा है,
तब क्यों, गमले में,
नीम-पीपल-बरगद का कैद होना अखर रहा है,

अरुण कान्त शुक्ला

13/12/2016                    

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