Thursday, July 14, 2016

मनुष्यता जहां खो जाती है..

शब्द जहां थोथे पड़ जाते हैं, 
संवेदना जहां मर जाती है, 
उस मोड़ पर आकर खड़े हो गए हम, 
मनुष्यता जहां खो जाती है,

दर्द बयां करने से क्या होगा यहाँ, 
मुरदों की ये बस्ती है, 
लाशें बिकती हैं महंगी यहाँ, 
जिन्दों की जाने सस्ती हैं,

इंसान रेंगता यहाँ, 
दो हाथों पैरों पर, 
सियार भेड़िये चलते दो पांवों पर, 
अजब ये बस्ती है,


सांस लेने को अगर कहते हो ज़िंदा रहना, 
तो हम ज़िंदा हैं, 
पर, नहीं हमारी कोई हस्ती है,
सोच में जिनकी बसा शौचालय, 
उन्हीं की आज हस्ती है

जो ज़िंदा हैं वो बोलेंगे, 
जो बोलेंगे वो मरेंगे, 
जिंदा रहने की शर्त यहाँ चुप रहना है,
है ये रीत अजब, 
पर, यही रीत आज चलती है,


अरुण कान्त शुक्ला
14/7/2016

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