Wednesday, August 28, 2013

जिन्दगी बस एक कामेडी है..



जिन्दगी बस एक कामेडी है..

जिन्दगी और कुछ नहीं,
 बस एक कामेडी है,
काने को देख लोग हंसते हैं,
फटे बाने को देख लोग हंसते हैं,
लूले को देख लोग हंसते हैं,
पागल को देख लोग हंसते हैं,
 कोई गिर पड़े तो लोग हंसते हैं,
और तो और लोगों ने सजा लिए हैं,
अब श्मशान इस तरह कि,
अब श्मशान वैराग्य भी नहीं होता,
 उधर मुर्दा जलता है,
 इधर लोग हंसते हैं,
 जिन्दगी में त्रासदी अब कहाँ,
भूखे अब विकास को देख हंसते हैं,
इसीलिये तो,
जिन्दगी और कुछ नहीं,
बस एक कामेडी है, 
अरुण कान्त शुक्ला,
28अगस्त, 2013  

Tuesday, August 27, 2013

आदिवासियों का कल्याण होगा ..



आदिवासियों का कल्याण होगा ..

जल, जंगल , जमीन पर बात होगी तो,
आदिवासी पर बात होगी,
आदिवासी पर बात होगी तो,
धर्मांतरण पर बात होगी,
धर्मांतरण पर बात होगी तो,
सनातन धर्म पर बात होगी,
सनातन धर्म पर बात होगी तो,
बाकी धर्मों से वो श्रेष्ठ है,पर बात होगी,
बाकी धर्मों से वो श्रेष्ठ है, पर बात होगी तो,
बाकी धर्मों को नष्ट करने पर बात होगी,
बाकी धर्मों को नष्ट करने पर बात होगी तो,
उन्हें कैसे नष्ट किया जाए, पर बात होगी,
उन्हें कैसे नष्ट किया जाए पर बात होगी तो,
....................................................?
...................................................
तो,
आदिवासियों का कल्याण होगा ..



अरुण कान्त शुक्ला
27अगस्त, 2013 Top of Form
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Wednesday, August 7, 2013

बचपन

 

 अभी अभी हुई तेज बारीश में पहली बार घर के आँगन तक पानी आ गया| सडक भी लबालब थी और निगम की चौड़ी नालियां भी पानी के साथ मुकाबला नहीं कर पा रही थीं| बस फिर क्या था 55 साल के बाद दरवाजे पर बैठकर कागज़ की नावें तैराने का आनंद उठाया| बचपन कभी जाता नहीं है| हम उसे बेकार समझकर अवचेतन के कबाड़खाने में डाल देते हैं| पर, जब निकलता है तो उतना ही उल्लासमय और खुशी देने वाला होता है, जितना तब था , जब हम बचपन में थे| मेरा साथ दे रही थी मेरी अनी दीदी|

बचपन, तुम तो ज़रा भी नहीं बदले,
अभी भी उतने ही उल्लसित और आनंदित हो,
जितने तब थे, जब में तुम्हारे अन्दर था या,
तुम मेरे अन्दर थे,

ओह, आज में कितना दुखी हूँ कि,
क्यों तुम्हें बुद्धिमत्ता, बड़ेपन और एटीकेट की चादर उढ़ाकर,
अपने अवचेतन के कबाड़ख़ाने में डाल दिया था,
तुम तो जैसे भी थे,
रह सकते थे मेरे साथ हरदम हमेशा,
और मैं रह सकता था, तुम्हारे साथ उल्लसित, आनंदित,
ठीक वैसे ही,
जैसे, जब मैं तुम्हारे अन्दर था या,
तुम मेरे अन्दर थे,

तुम कहाँ बदले,
बदल तो हम गए,
संसार के छल, प्रपंच और छद्म में,
तुम अगर साथ रहो,
और कभी दूर न जाओ तो,
क्या कहने की जरुरत पड़ेगी इन समझदारों को,
कि, इंसान हो इंसान से प्यार करो,
बचपन में तो अरुण, जाहिद और सलिल ईसाई,
साथ खेला करते थे, सतौलिया और चोर सिपाही,
ये जो समझदारी हमने ओढ़ रखी है,
ये समझदारी है या,
समझदारी ने बना दिया है,
इंसान को उल्लू ,
बचपन, तुम तो ज़रा भी नहीं बदले,
अभी भी उतने ही उल्लसित और आनंदित हो,
जितने तब थे, जब में तुम्हारे अन्दर था या,
तुम मेरे अन्दर थे,
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अरुण कान्त शुक्ला
6 अगस्त 2013

Monday, August 5, 2013

उस किताब के पन्ने अब पलटने लगे हैं ..


उस किताब के पन्ने अब पलटने लगे हैं,
राज उनके अब खुलने लगे हैं,

हवाओं को तो एक दिन थमना ही था,
अफवाहों के सच अब खुलने लगे हैं,

झूठों के महल तो एक दिन ढलना ही थे,
अब तेरे बंगले के राज खुलने लगे हैं,

तू कितना भी तान ले गले की नसें, चुचुहा ले कितना भी पसीना,
तेरे बोल ही अब तेरी पोल खोलने लगे हैं,

तुमने नहीं दिया हिसाब लाखों का,
लोग अब पाई पाई का हिसाब खोलने में लगे हैं,


अरुण कान्त शुक्ला
05/08/2013

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